Thursday, August 20, 2020

When there is pain, there is only pain


                                                    दर्द 

मेरे दिल से निकली धड़कन भी अब तो 
बेचैनी पैदा करती है 
ये गर्म आंसुओं से जल्ती ऑंखें 
कुछ ऐसा ढूँढा करती हैं 
जो इस दिल से निकली आग को 
थोड़ा पानी पिला दे 

मेरी हर ख्वाहिश भी अब तो 
मुझसे साजिश करती है
मैं ढूंढता हूँ अलग अलग रंगों में ख़ुशी 
मगर टूटे सपनो की यादें 
कतरा कतरा मुझमे 
गम की कालिख भर्ती है  

अजब ही मज़ा आता है  
दर्द ही दवा बन जाता है 
जब नीली नसों से बहकर 
जेहन तक ये आता है 
दुनिया का बेहतरीन 
नशा बन जाता है 

ये दर्द जब जब होता है 
तो बस दर्द ही दर्द रहता है 
वो बेचैन बंजारा 
सबकुछ भुला देता है 

दिल की बेचैनी छानकर 
ये हसीं दर्द 
थोड़ी राहत बचा लेता है 
इस हलके हलके दर्द 
की खुराक पर ही तो 
ये बंजारा जिन्दा रहता है 

When the brain explodes with energy


                                                    Euphoria

क्या है ये 
लगता है रगों में खून बनकर  
जूनून दौड़ रहा है
कतरा कतरा मुझमे से मेरा 
डर निचोड़ रहा है 
ये आज़ादी तो थोड़ी पागल है 
थोड़ी घातक है 
इसे जैसे मालूम ही नहीं 
की ज़िन्दगी की भी 
कोई कीमत है 

 लगता है जेहन ने 
ज़ंजीरें तोड़ दी है
सारी शर्म ओ लिहाज़ 
छोड़ दी है 
खुदी के एहसासों की गर्मी से 
तप्ता है बदन  
फटती हैं नसें 
और मचलता है मन 

पैर रुकते नहीं ज़मी पैर 
रास्तों की परवाह न कोई 
और न मंज़िल से कोई मतलब है 

मुश्किल है पता करना 
आज़ादी पागल होती है 
के कोई पागल आज़ाद हो गया है 

Let's build a society which is balanced and adaptive. A rigid society will deteriorate sharply.

  मलबा

बरसों पहले बुजुर्गों ने मकाँ जो बनाया था 

आज वो ढह गया है 

हुआ करता था महल जहां 

आज बस मलबा ही रह गया है 


वो जो लोग जंगलों से आए थे 

एक नई सोच, एक नई सीख अपने साथ लाए थे 

अदब, आबरू, तहज़ीब और शर्म 

मकाँ की हर ईंट में समाए थे 

इसी जुनून में तो नए घर बनाए थे 


मकाँ जो इतना मज़बूत बना था 

आँधी तूफ़ान में भी तन के खड़ा था 

दुनिया से अनजान थे उसके बाशिंदे 

रोशनी को बिना इजाज़त अंदर आना जो मना था 


बड़ा अहम था उनको अपने उसूलों पर 

अपने तजुर्बों के नायाब नमूनों पर 

वक्त भी बैठा था वक्त के इंतेज़ार में 

ढह गया वो मकाँ बदलावों की धीमी धार से 


मलबे के ढेर पर बैठा देखता हूँ 

मकाँ तो है नहीं मगर नक़्शा कुछ मौजूद है 

बिन दीवारों के उस मकाँ में 

उन बाशिंदों की नस्लें आज भी क़ैद है 


काश वो मकाँ इतना मज़बूत ना बना होता 

तो वक्त के रहम से आज भी खड़ा होता 







Saturday, December 22, 2018


एक शाम 


बेरोज़गारी के उन तन्हा लम्हों को 
सब्ज़ करता है तेरा तस्सवुरऱ 

नूर-ए-सादगी तेरी आँखों का   
ही तो है मेरा हौसला-ए-कलम 

लबों से लफ्ज़ जो निकले 
लब फैले कभी सिकुड़े 
हसी जो चेहरे पर बिखरे 
दीदार-ए-मंजर तो महफ़िल हो जाए 

सीने में बैठा वो शायर बग़ावत करदे 
ये खूबसूरत ख्याल हमें काफिर करदे 
इससे पहले 

खोल लेते हैं थम से अपनी आँखें 

Friday, March 2, 2018

We all are Hacked...


HACKED


One day when I woke up
a thought crossed my mind
what if somebody hacked me
I saw someone was in there my phone
troubling my little mind 
with lots and lots of suggestions
tracking all my locations
saving all of my credentials

One day when I woke up
a thought crossed my mind
what if someone is watching me
all the time
all my tired days and lazy nights
listening to my devilish laughs and deep cries
capturing my moods
the lows and the highs

what if somebody knows me
better than mine
tracking my searches from five to nine
selling me all the shit
I don't wanna buy
makes me a bloody better consumer
at every try
don't even know whether I am a consumer
or it is consuming all my time
lots and lots of information
boggling our little minds

One day when I woke up
I saw my digital self
lying on a computer chip
in those big data centers of this giant
not just our phones
somebody hacked into our lives

Friday, September 29, 2017

Nothing of me is mine.

                                

                           I Owe You


आओ और न सोचो, सोच के क्या पाओगे 
जितना भी समझे हो, उतना पछताए हो 
                                                        जावेद अख़्तर     

आओ और न सोचो, सोच कर क्या पाओगे 
जितना भी समझे हो, उतना पछताए हो 
अब इतनी समझ लेकर तुम कहाँ जाओगे 
जितना भी समझोगे, उतना ही उलझोगे 

गनीमत है, तुम खुद को सुलझा पाओगे 
आदम के अख्लाकी कारागारों में 
कायदों में किरदारों में 
खुद को  ढल्ता पाओगे 

आओ और न सोचो 
ज्यादा गर तुम सोचोगे    
तो उधार की सोच से 
वक़्त की नींव पर बनी 
ये समझ की इमारत ढह जाएगी 

आज़ादी तो ले जाओगे 
मगर वीरानों में खो जाओगे 
वो समझ वापस न बुन पाओगे 
वक़्त से मत खाओगे 
यार बड़े पछताओगे 

समझ में सब आएगा 
समझ न कभी कुछ पाओगे 
चोट तो तुम खाओगे 
महसूस न कभी कर पाओगे 
सही और गलत ही भूल जाओगे 


Friday, May 12, 2017

For the professor.

                         

               NIGHTingale .2


काश के होती इस चेहरे पर गुस्से की वो शिकनें 
बस कुछ ही पलों के लिए 
तो शायद ख़ुद को तुजसे नाराज़ पाता मैं 
यूँ खुली आँखों से न
तेरे तस्सवुर के जाम पाता मैं 

काश के होती उस आवाज़ में ज़रा सी कड़वाहट 
तो यूँ न तुझे सुनने के लिए                                         
ज़ेहन में झूठे सवाल बुन पाता मैं 

ऐ काश न होता तुझमें वो अदब                 
तो न होता मैं भी इतना बेअदब    
फ़िर अपनी कलम की इन गुस्ताखियों  में 
न तुझे तू बुलाता मैं                                                         

काश के होती मुझमे वो समझ 
की तुझे                                                   
इस लिबास, शक्ल और स्वभाव के 
पार देख पाता मैं 
गर न होता ये पाक रिश्ता दरमियाँ
तो किसी दिन बिना गुनाह की खलन के 
तुझसे नज़रें मिलाता मैं